ये तो हम सब जानते हैं कि ज़िंदगी इम्तिहान लेती है, लेकिन कई लोगों को तो ये ज़िंदगी ऐसा बना देती है कि वे इस इम्तिहान में बैठने लायक भी नहीं रहते. इंसान किसी रेस में तभी हिस्सा लेगा ना, जब उसकी टांगे सलामत होंगी. हम अपने आसपास देखते हैं और पाते हैं कि यहां ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें ज़िंदगी ने इस लायक बनाया ही नहीं कि वे कुछ कर सकें. सही मायने में देखा जाए तो असली इम्तिहान तो इन्हीं का है.
सोच कर देखिए कि आप उसेन बोल्ट को किस लिए जानते हैं? क्योंकि वे दुनिया के सबसे तेज धावक माने जाते हैं. लेकिन अगर यही उसेन ट्रैक को अपने पैरों पर दौड़ते हुए पार करने की बजाए किसी बाइक से वो दूरी तय करें तो हम उन्हें क्यों जानेंगे? ज़िंदगी सबको उसेन बोल्ट बनने का मौका नहीं देती जनाब, इसके लिए चुनौतियां चाहिए और उन्हें पार करने का जज़्बा.
हमारी आज की कहानी एक ऐसे ही रियल लाइफ हीरो की है, जिन्होंने अपने जज्बे से साबित कर दिया कि नामुम्किन कुछ भी नहीं. हम बात करे रहे हैं रमेश घोलप की, जिसका बचपन मजदूरी की आग में तपते हुए बीता. जन्म के साल डेढ़ साल बीते तो पोलिओ उनकी एक टांग निगल गयी. बावजूद इसके वह IAS अफसर बना.
मां के साथ सड़कों पर चूड़ियां बेचीं
महाराष्ट्र के सोलापुर जिले के वारसी तहसील के महागांव में जन्में रमेश घोलप ने जब होश संभाला तो अपने परिवार सहित खुद को दो वक्त की रोटी के लिए ज़िंदगी से जूझता पाया. रमेश के पिता एक साइकिल रिपेयरिंग की दुकान चलाते थे. इस दुकान से रमेश के परिवार की रोटी चल भी सकती थी, लेकिन इस रोटी और रमेश के पिता के बीच खड़ी थी शराब की बुरी लत.
ऐसी लत जिसने उनके पिता की आंखों पर ऐसी पट्टी डाल दी थी, जिससे वह अपनी पत्नी तथा छोटे बच्चों की भूख तक नहीं देख पाते थे और सारे पैसे शराब की भेंट चढ़ा देते थे. घर की बिगड़ती हालत के साथ एक और बड़ा दुःख तब सामने आया, जब डेढ़ साल के रमेश का बायां पैर पोलियो की चपेट में आ गया. घर की बिगड़ती हालत देख रमेश की माता जी समझ गयीं कि पति के भरोसे घर नहीं चल पाएगा.
बस फिर क्या था, उन्होंने गांव गांव जा कर चूड़ियां बेचनी शुरू कर दीं. रमेश तथा उनके भाई ने जब मां को इन तंगियों से लड़ते देखा तो वे भी लग गये मां का साथ देने. रमेश की उम्र के बच्चे स्कूल जा रहे होते तो रमेश मां के साथ नंगे पांव गांव गांव घूम कर चूड़ियां ले लो चूड़ियां की आवाज़ देता फिरता.
इन सब परेशानियों के बीच कुछ अच्छा था तो केवल यही कि रमेश के अंदर पढ़ने की ललक नहीं खत्म हुई थी. मां के काम में हाथ बंटाने के साथ साथ रमेश गांव के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ते भी रहे. लेकिन यहां तक सीमित कक्षाएं थीं. आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें अपने चाचा के गांव बरसी जाना पड़ा.
घर लौटने तक के लिए पैसे नहीं थे
रमेश की पढ़ाई से उनके अध्यापक खूब खुश थे. उन्हें उम्मीद थी कि रमेश कुछ बेहतर करेंगे. लेकिन रमेश की कक्षा की परिक्षाओं से कहीं ज़्यादा कठिन थी उनके जीवन की परिक्षाएं. साल 2005 में रमेश 12वीं में थे. परिक्षाएं एकदम नज़दीक थीं, लेकिन तभी खबर मिली कि उनके पिता जी का निधन हो गया.
रमेश बरसी में थे और उन्हें महागांव लौटना था. इस सफ़र का किराया था 7 रुपये, लेकिन विकलांग पास के बाद उन्हें 2 रुपये ही देने पड़ते. ये रुपये भी रमेश के पास नहीं थे, जिससे वे अपने पिता के अंतिम संस्कार में जा पाते. मगर पड़ोसियों ने मदद की और रमेश अपने पिता के अंतिम संस्कार में शामिल हो सके.
पिता की मौत का उन्हें बड़ा सदमा लगा. जबकि 12वीं की मॉडल परिक्षाएं शुरू होने में मात्र चार दिन शेष बचे थे. वह जाना नहीं चाहते थे मगर मां के समझाने पर वह बरसी लौटे तथा केमिस्ट्री की परिक्षा दी. लेकिन उन्होंने अन्य मॉडल परिक्षाएं नहीं दीं ना ही अपने जर्नल जमा करवाए. मुख्य परिक्षाओं में भी मात्र महीना भर बचा था, लेकिन रमेश जैसे टूट चुके थे.
इसी बीच उन्हें अपने अध्यापक की चिट्ठी मिली जिसमें लिखा था कि उन्होंने जो परिक्षा दी उसमें उन्हें 40 में से 35 अंक मिले हैं. इसके साथ ही अध्यापक ने रमेश को मिलने बुलाया. मिलने के बाद उनके अध्यापक ने उनका हौसला बढ़ाया. रमेश ने भी तैयारी शुरू कर दी. उनकी मेहनत का ये परिणाम निकला कि 12वीं की परीक्षा में उन्होंने 88.5 प्रतिशत अंक प्राप्त किए.
इसके बाद उन्होंने डीएड किया क्योंकि यही एक ऐसा कोर्स था जिसमें कम पैसे लगते और इसे करने के बाद उन्हें नौकरी भी मिल जाती.
गरीब इंसान के लिए छोटी सी खुशी भी बड़े मायने रखती है. रमेश ने डीएड कर लिया था इसके साथ ही उन्होंने ओपन से ग्रेजुएशन भी पूरी कर ली. 2009 में रमेश एक अध्यापक बन चुके थे. मज़दूरी से अपना पेट भरने वाले इस परिवार को अपने बेटे के अध्यापक बनने पर ऐसा लगा मानों उनका एक बड़ा सपना पूरा हो गया हो.
किन्तु, कौन जानता था कि रमेश को अभी बहुत आगे जाना है. एक छोटे से कमरे में रमेश का पूरा परिवार रहता था. रमेश की मां जब सरकारी राशन की दुकान पर राशन लेने जाती तो रमेश ये देखता कि दुकानदार कैसे गरीबों को राशन देने से मना कर रहा है. ऐसे ही मां की विधवा पेंशन में भी कई तरह की परेशानियां आतीं.
…और फिर शुरू हुआ असली सफ़र
कॉलेज के दिनों में रमेश जब छात्र संघ से जुड़े थे तब छात्र अपनी परेशानियों को लेकर तहसीलदार के पास जाते. इसे देख कर रमेश को लगा कि तहसीलदार के पास बहुत पावर है वो भी अगर तहसीलदार बन जाए तो अपनी मां जैसी अन्य महिलाओं और गरीबों के लिए कुछ अच्छा कर सकता है.
यही सब सोचने के बाद रमेश ने तय किया कि वह बड़े अधिकारी बनेंगे. वह समझ चुके थे कि हक़ के लिए आवाज़ उठाने से अच्छा है उस सिस्टम का हिस्सा बन जाना जहां से गरीबों को उनका हक़ दिया जा सके. रमेश ने अपनी मां द्वारा लिए लोन में से पैसे लिए तथा यूपीएससी की तैयारी के लिए पुणे चले गये.
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि रमेश जिस लक्ष्य को पाने के लिए सफर पर निकले थे उन्हें वहां तक पहुंचने का रास्ता तक नहीं मालूम था. बकौल रमेश उन्हें यूपीएससी तथा एमपीएससी का मतलब भी मालूम नहीं था. ना ही उनके पास इतने पैसे थे कि वह किसी अच्छे कोचिंग में अपना दाखिला करा सकें.
तब उन्होंने कोचिंग में पढ़ा रहे अध्यापकों से मिलना शुरू किया, जिससे वे इस बारे में जान सकें. इन्हीं में से एक अध्यापक थे अतुल लांडे. रमेश ने अतुल से विनती की कि वह उन्हें कुछ सवालों के जवाब दें. जैसे कि यूपीएससी क्या है? उन्हें अंग्रेजी नहीं आती तो क्या वह मराठी में ये परीक्षा दे सकते हैं? क्या वो ये परीक्षा देने योग्य हैं?
ऐसे कई सवाल थे, जिनका जवाब रमेश को अतुल से चाहिए था. इस पर अतुल ने यही जवाब दिया कि ऐसा कुछ भी नहीं जो तुम्हें यूपीएससी की परीक्षा देने से रोक सके. रमेश के मुताबिक अतुल के इसी एक जवाब के कारण उन्होंने आगे बढ़ने का निर्णय लिया और अपने लक्ष्य को प्राप्त किया.
अंतत: पूरी कर ली अपनी कसम
रमेश ने 2010 में यूपीएससी की परीक्षा दी, लेकिन कामयाबी हाथ ना लगी. इसके बाद उन्होंने फैसला किया कि वे राजनीति की मदद से ज़रूरतमंदों की मदद करेंगे. इसी सोच के साथ उन्होंने कुछ दोस्तों के साथ मिल कर एक लोकल राजनीतिक पार्टी बनाई. सरपंच के चुनाव आ गये थे. सो उन्होंने अपनी मां को इस चुनाव में खड़ा कर दिया.
कड़ी मेहनत और अच्छी सोच के बावजूद रमेश की मां चंद वोटों से चुनाव हार गयीं. इस हार के कारण रमेश को दुखी होना चाहिए था, मगर ऐसा ना हुआ. इसके विपरीत उनका हौसला और बढ़ गया. उन्होंने तय किया कि वे लड़ेंगे और कुछ नया कर दिखाएंगे. एक दिन उन्होंने गांव के लोगों को इकट्ठा किया और उनके सामने प्रतिज्ञा ली कि जब तक वह बड़े अधिकारी नहीं बन जाते, तब तक वह गांव नहीं लौटेंगे.
इसके बाद कुछ ऐसा नहीं था जो रमेश को आगे बढ़ने से रोक सकता था. जिस नौकरी को रमेश के परिवार वाले किसी सपने के पूरे होने जैसा मान रहे थे. रमेश ने उसे छोड़ने में ज़रा भी देर नहीं लगाई. एक अनजान लक्ष्य के लिए रमेश का नौकरी छोड़ देना एक गरीब परिवार के लिए जुआ खेलने से कम नहीं था.
कुछ भी हो सकता था, मगर परवाह किसे थी. यहां तो अब बस लक्ष्य को पा लेने का जुनून था. राजेश ने स्टेट इंस्टीट्यूट एडमिनिस्ट्रेटिव करियर्स ( एसआईएसी) की परीक्षा पास कर ली. इससे उन्हें एक होस्टल तथा यूपीएससी की तैयारी के लिए स्कॉलरशिप मिला. अपने अन्य खर्चों को पूरा करने के लिए रमेश पोस्टर पेंट करते थे.
ये साल 2011 था जब इस विकलांग लड़के ने ये साबित कर दिया था कि ज़िंदगी की रेस में दौड़ने के लिए टांगों की नहीं, बल्कि हौसले और जज़्बे की ज़रूरत होती है. एक अनपढ़ मां बाप का इस लड़के, जिसने जिला परिषद स्कूल से पढ़ाई की, मां के साथ चूड़ियां बेचीं, पोस्टर पेंट किए, वो आज यूपीएससी की परीक्षा पास कर चुका था. वो भी ऑल इंडिया 287 रैंक के साथ.
कसम पूरी कर रमेश गांव लौटे
2012 में एक चूड़ी बेचने वाली महिला का बेटा रामू अब आईएएस ऑफिसर रमेश गोरख घोलप बन चुका था. एक लंबी लड़ाई के बाद प्रतिज्ञा पूरी हो चुकी थी. रमेश गांव पहुंचा, तो ज़ोरदार स्वागत हुआ. रमेश ने केवल यूपीएससी ही क्लियर नहीं किया था इसके साथ ही उन्होंने एक बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल की थी.
दरअसल, यूपीएससी के साथ ही रमेश ने एमपीएससी की परिक्षा भी दी थी. जब इसका परिणाम आया तो रमेश एक नया इतिहास लिख चुके थे. उन्होंने एमपीएससी में 1800 में से 1244 अंक प्राप्त करने के साथ ही महाराष्ट्र टॉप किया था. ये अब तक किसी भी अभ्यर्थी द्वारा प्राप्त किये गये अंकों में सबसे ज्यादा अंक थे.
रमेश ने क्या हासिल किया, ये उनकी मां के उन शब्दों से जाना जा सकता है जो रमेश की कामयाबी के बाद उन्होंने कहे थे. “मैं पढ़ लिख ना सकी, लेकिन मैंने फैसला किया कि मैं अपने बेटों को ज़रूर शिक्षित बनाउंगी. आज मेरा बेटा एक बड़ा अधिकारी बन गया है और मैं बहुत खुश हूं. मेरे बेटे ने आज मेरा हर कर्ज उतार दिया.”
रमेश घोलप को झारखंड कैडर मिला. 30 जून 2019 को उन्होंने झारखंड के कोडरमा के 22वें डीसी के रूप में पदभार संभाला. इससे पहले वे झारखंड के सरायकेला के डीसी थे. वो अन्य कई जिलों में भी डीसी के रूप में अपनी सेवाएं दे चुके हैं. रमेश के अनुसार उनके आईएएस बनने के बाद उनकी मां उनसे कई बार कह चुकी हैं कि “रमेश, जैसे हालात पहले हमारे थे वैसे ही आज कई लोगों के हैं. ऐसे लोगों की समस्याएं सबसे पहले सुनना. इनकी दुआएं कमाना.”
रमेश ने भी आगे ऐसा ही किया. रमेश अभी तक 400 से ज़्यादा ऐसे कार्यक्रमों में हिस्सा ले चुके हैं, जहां वे युवाओं का उत्साह बढ़ाते हैं. उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं. वे जानते हैं कि उनकी तरह ही यहां कई ऐसे बच्चे हैं, जो कुछ बड़ा कर सकते हैं लेकिन सही मार्ग दर्शन ना मिलने और बुरे हालातों की वजह से वह आगे नहीं बढ़ पाते. वे ऐसे बच्चों का हौसला बढ़ाते हैं.
इसके अलावा रमेश जनता दरबार लगा कर सीधे तौर पर जनता और उनकी परेशानियों से रूबरू होते हैं. उनका मानना है कि जब वह तीन घंटे के भीतर ही महिलाओं की पेंशन मंजूर करवाते हैं, तब उन्हें अपनी मां तथा उनकी तरह ही लंबी कतार में खड़ी वह सभी महिलाओं याद आ जाती हैं, जिन्हें कई जतन करने के बाद भी पेंशन नहीं मिलती थी.
दमन करने वालों के लिए काल बने
जब वह बच्चों को किताबों से लेकर अन्य ज़रूरत के सामान बांटते हैं तो उन्हें याद आता है कि कैसे बचपन में वह इन चीज़ों के लिए तरसते थे. रमेश ने भ्रष्टाचारियों तथा गरीबों का दमन करने वालों की भी खूब खबर ली है. जब वह खूंटी और बोकारो जिले में डीसी थे, तब उन्होंने कई राशन दुकानदार और रॉकेल के हॉकर्स को कालाबाजारी और अनियमितता के अपराध में जेल भेजा.
एक ही दिन में 39 दुकानदारों के लाइसेंस सस्पेंड कर 123 दुकानदारों को ‘कारण बताओ’ नोटिस जारी किया. ये सब करते हुए उन्हें अपने घर का वह कम मिट्टी के तेल का ‘दीया’ याद आता था जिसमें डलने वाले तेल के लिए लंबी लाइन लगाने के बाद भी हाथ में कुछ ना आता.
सरकारी अस्पतालों में जाकर वहां की स्थिति सुधारने का प्रयास करते हुए रमेश को उनके पिता याद आते है, जो सुविधाओं से वंचित रहने के कारण इस दुनिया से चले गये. रमेश को याद है कि उनकी मां इंदिरा आवास जैसी योजना का लाभ उठा कर एक घर बनना चाहती थी, जिससे कम से कम उनके पास एक छत तो हो. लेकिन उन्हें ये सुविधा ना मिल सकी.
दरअसल, जिनके हाथ में ये सब होता था. वे ऐसी सुविधाएं गरीबों को ना देकर उन्हें दे देते हैं, जो पहले से ही संपन्न होते. यही वजह है कि रमेश इंदिरा आवास जैसी योजनाओं की मंजूरी सबसे पहले उन्हें देते हैं जो बेघर हैं. समस्या यही तो है कि हम जिस दौर से निकल कर आगे बढ़ते हैं, उसी दौर में जी रहे लोगों को अनदेखा कर देते हैं. लेकिन रमेश घोलप जैसे लोगों की सोच अलग है.
वे आज ऐसे लोगों के लिए काम कर रहे हैं, जिनकी हालत ठीक वैसी ही है जिस हाल में कभी रमेश और उनका परिवार था. आज सबसे ज़्यादा ज़रूरत है तो भारत के उस हिस्से को मजबूत बनाने की जहां लोग आम जरूरतों को भी पूरा करने में सक्षम नहीं. रमेश घोलप जैसे लोग ही देश को मजबूत बना रहे हैं.
इसके साथ ही रमेश प्रेरणा हैं उन सबके लिए जिनके पास परेशानियों और कठिनाइयों का बहाना है. हम उन बहाने बनाने वालों से कहना चाहेंगे कि देखिए इस लड़के को जिसने अपनी एक टांग खराब होने के बावजूद भी गरीबी से आईएएस अधिकारी बनने तक का सफर नाप लिया. जब ये कर सकते हैं तो आप क्यों नहीं ?
Input: indiatimes