गलत को गलत कहने की हिम्मत हर किसी में नहीं होती. जब आप गलत को गलत कहने लगते हैं तो गलत करने वाले हर तरह से आपकी आवाज़ दबाने की कोशिश करते हैं. कोई डर के चुप हो जाता है तो कोई अपनी आवाज से अपना नाम अमर कर जाता है. ऐसी ही एक बुलंद और बेखौफ आवाज थी सत्येन्द्र कुमार दूबे की.
कौन थे सत्येन्द्र दूबे?
सत्येन्द्र दूबे के अंदर वही ईमानदारी और देशभक्ति थी जो भगत सिंह जैसे देशभक्तों में हुआ करती थी. सत्येन्द्र पैदा तो हुए भारत की बढ़ रही आबादी का एक आम सा चेहरा बन कर लेकिन उन्होंने जो किया उसने उनके नाम को एक मिसाल बना दिया. 1973 में बिहार के सिवान जिले में के एक गांव शाहपुर में जन्मे थे सत्येन्द्र दूबे.
बिहार के अन्य गांवों की तरह इस गांव तक भी विकास नहीं पहुंच पाया था अभी तक. विकास को पहुंचते पहुंचते रात हो जाया करती और गांव में तो बिजली थी नहीं तो भला विकास कैसे रास्ता ढूंढ पाता इस गांव का. भले ही इस गांव में बिजली तक नहीं थी लेकिन ये गांव इस बात से अनजान था कि उनके गांव में एक ऐसे सूरज ने जन्म लिया है जो यहां का नाम रौशन करेगा.
मेहनत से इंजीनियर बने
पंद्रह साल की उम्र तक सत्येन्द्र ने शाहपुर के ही हाई स्कूल में पढाई की तथा उन्होंने इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के जूनियर कॉलेज में दाखिला लिया. सत्येन्द्र ने न केवल 10वीं तथा 12वीं के बोर्ड परीक्षा टॉप की बल्कि इंजीनियरिंग आईआईटी प्रवेश परीक्षा में शानदार प्रदर्शन करते हुए देश की के जाने माने आई आई टी कॉलेज आई आई टी कानपुर में प्रवेश पा लिया.
यहां से अपनी इंजीनियरिंग पूरी करने के बाद सत्येन्द्र दूबे ने आई आई टी बीएचयू वाराणसी से अपना एम.टेक पूरा किया. पढ़ाई पूरी करने के बाद सत्येन्द्र ने किसी बड़ी कंपनी का हिस्सा बनने की बजाए भारतीय अभियांत्रिकी सेवा में जाना सही समझा. ये परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने वर्ष 2002 में भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI ) में सेवाएं स्वीकार कीं.
भ्रष्टाचारियों की आई सहमत
सत्येन्द्र को औरंगाबाद से बाराचट्टी के बीच बन रहे नेशनल हाइवे प्रोजक्ट की देखरेख के लिए कोडरमा, झारखण्ड में असिस्टेंट प्रोजेक्ट मैनेजर के रूप में नियुक्त किया गया. ये नेशनल हाइवे प्रोजेक्ट उसी स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना का हिस्सा था जिसके अंतर्गत 14000 किमी के अंदर कई बड़े शहरों को फोर लेन सड़क द्वारा जोड़ा जाना था. इसकी लागत 10 बिलियन अमेरिकी डॉलर बताई गई थी.
जैसे जैसे सत्येन्द्र अपनी नौकरी में दिन बिताते गए वैसे वैसे उन्हें आभास होने लगा कि इस परियोजना में बडे़ स्तर पर भ्रष्टाचार और वित्तीय अनियमिताएं चल रही हैं. उन्होंने देखा कि विभाग के ठेकेदारों और इंजिनियरों की सांठ-गांठ से भ्रष्टाचार का धंधा खूब फल फूल रहा था. उन्होंने अपने ही विभाग के कुछ भ्रष्ट अधिकारियों और इंजीनियरों के खिलाफ कार्यवाही कर उन्हें निलंबित कर दिया.
ये सत्येन्द्र की पहली सफलता थी लेकिन जब तक वो इस पर खुश होते तब तक उन्होंने पाया कि बात केवल इतनी सी नहीं है. यहां तो जड़ से फुनगी तक हर कोई भ्रष्टाचार के रंग में रंग हुआ है. सत्येंद हार मानने वाले नहीं थे. एक बार उन्होंने पाया कि छः किमी दूरी की सड़क जो अभी हाल ही में बनी थी, की हालत एकदम खस्ता हो चुकी है. उन्होंने उस रोड बनाने वाले ठेकेदार को तलब किया तथा 6 किमी की सड़क को दोबारा से बनवाया. सड़क माफियाओं को बड़ा नुकसान झेलना पड़ा. इस तरह से सत्येन्द्र माफियाओं से लेकर नेताओं तक की नजर में आ गए. लेकिन यहां परवाह भला किसे थी.
ईमानदारी के फलस्वरूप ट्रांसफर
ऐसे ही सत्येन्द्र के कई ठेकेदारों को सबक सिखाया लेकिन इसका नुकसान उन्हें उठाना पड़ा तथा उनके न चाहते हुए भी उनका ट्रांसफर गया कर दिया गया. भले ही उनका स्थानांतरण कर दिया गया लेकिन सत्येन्द्र नहीं बदले. जैसे कि उन्होंने मन ही मन में ठान लिया हो बदलाव लाने का. बीतते समय के साथ सत्येन्द्र एक बात जान चुके थे कि ऐसे ठेकेदारों और कर्मचारियों को निकालने से कुछ खास बदलाव नहीं आएगा. ऐसे ये सब रुकने वाला नहीं है, उन्हें कुछ बड़ा सोचना पड़ेगा.
तात्कालीन प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठी
अपने चारों तरफ व्याप्त भ्रष्टाचार में जैसे सत्येन्द्र घुट रहे थे. वो जानते थे कि वो यहां किसी से शिकायत नहीं कर सकते क्योंकि वे सब या तो खुद भ्रष्टाचार में लिप्त हैं या फिर अपना मुंह खोलने से डरते हैं. ये 2002 सन था, अटल बिहारी वाजपयी भारत के प्रधानमंत्री थे. सत्येन्द्र ने सोच लिया कि वो इसकी शिकायत सीधे प्रधानमंत्री से करेंगे. यही सोच कर उन्होंने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी.
इस चिट्ठी में सत्येन्द्र ने अपने आसपास व्याप्त भ्रष्टाचार पर रौशनी डालते हुए, उन अधिकारियों की तरफ इशारा भी किया जो संदेह के घेरे में थे. उन्होंने अपनी इस गोपनीय चिट्ठी की शुरुआत में लिखा कि “किसी तरह का ड्रीम प्रोजेक्ट राष्ट्र के लिए अद्वितीय महत्व रखता है. लेकिन यहां जनता के पैसे का दुरूपयोग हो रहा है, हर तरफ भ्रष्टाचार और लूट मची हुई है.” अपनी इस चिट्ठी का अंत सत्येन्द्र ने इस बात के साथ किया कि “मैं इस चिट्ठी में केवल वे समस्याएं लिख रहा हूं जिन पर कोई प्रतिक्रिया लेना मेरी क्षमता से बाहर है. जो मेरे बस में है उन पर हमेशा मेरी नजर बनी रहेगी.”
एक चिट्ठी ने कइयों की उड़ाई नींद
इसी के साथ सत्येन्द्र ने इन सब में रूस, चीन और दक्षिणी कोरिया की कंस्ट्रक्शन कम्पनियों के मिलीभगत की बात भी चिट्ठी में लिखी. सत्येन्द्र जानते थे कि इस चिट्ठी में उनका नाम सामने आते ही उनके और उनके परिवार के साथ कुछ भी अनहोनी हो सकती है. इसी कारण उन्होंने प्रधानमंत्री से ये विनती की कि उनका नाम गोपनीय रखा जाए. लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि उनकी लिखी ये चिट्ठी एक साल तक अलग अलग संगठनों में घूमती रही. इस गोपनीय चिट्ठी के बारे में शायद वो भी जान गए जिनकी तरफ इसमें इशारा किया गया था.
ईमानदारी की वजह से चली गई जान
वर्ष 2003 था तारीख 27 नवंबर थी. सत्येन्द्र वाराणसी से एक विवाह समारोह में अपनी उपस्थिति दर्ज करा के वापस लौट रहे थे. उन्होंने अपने ड्राइवर से कह दिया था कि वो उन्हें गया स्टेशन लेने पहुंच जाए. भोर के तीन बजे थे. अंधेरा अभी छंटा नहीं था. सत्येन्द्र गया स्टेशन पर पहुंचे. देखा तो उनका ड्राइवर गाड़ी लेकर अभी तक नहीं पहुंच था. उन्होंने घर फोन किया तो ड्राइवर ने बताया कि गाड़ी में खराबी आ गई है.
सत्येन्द्र स्टेशन से बाहर आये और एक रिक्शा कर लिया. रिक्शा उन्हें लेकर स्टेशन से उनके घर की और बढ़ा तो सही लेकिन वो फिर कभी घर नहीं पहुंचे. वो बीमारी जिसे ईमानदारी कहा जाता है ने सत्येन्द्र की जान ले ली. अगली सुबह उनकी लाश गया की एपी कॉलोनी के पास सड़क किनारे पाई गई.
सत्येन्द्र दूबे की हत्या का केस सीबीआई को सौंप दिया गया. सीबीआई ने धारा 120-बी (अपराधिक षडयंत्र), इंडियन पीनल कोड की धारा 302, तथा आर्म्स एक्ट के मामले में 14 दिसंबर को किसी अनजान व्यक्ति के खिलाफ केस दर्ज किया. दर्ज केस इस शक पर आधारित था कि सत्येन्द्र की हत्या बिल्डर माफिया द्वारा रचे एक षड्यंत्र के तहत हुई है.
हत्या नहीं लूट का मामला बताया गया
लेकिन सीबीआई ने अपनी जांच के बाद इसे स्थानीय अपराधियों द्वारा की गई लूट में हुई हत्या बताया. इस सारी घटना को महज 4500 रुपयों की लूट के कारण की गई हत्या बताया गया. इस केस का इकलौता गवाह वो रिक्शा चालक जिसका नाम प्रदीप कुमार था, साल भर बाद गायब हो गया.
दो अन्य गवाह जिनसे पुलिस पूछताछ कर रही थी ने एक ही दिन आत्महत्या कर ली. उदय मल्लाह जिसे इस हत्या का मुख्य अपराधी माना जा रहा था 2010 में जेल से भाग गया और फिर 2017 में उसे नालंदा से गिरफ्तार किया गया. ध्यान देने वाली बात ये है कि इस केस से जुड़ी इतनी संदेहास्पद घटनाओं की कोई छानबीन नहीं की गई. ये सारी बातें सत्येन्द्र दूबे हत्या केस में की गई जांच पर सवालिया निशान लगाती हैं.
सत्येन्द्र दूबे ही नहीं बल्कि उनके परिवार के साहस को भी सलाम किया जाना चाहिए. जब बिहार सरकार ने सत्येन्द्र दूबे के परिवार को मुआवजा देना चाहा तो उनके पिता बागेश्वरी दूबे ने ये कह कर मुआवजा लेने से इनकार कर दिया कि “पैसे का वो क्या करेंगे, यदि सरकार कुछ देना चाहती है तो मेरे बेटे को न्याय दे.”
सत्येन्द्र दूबे को भारत की हर मीडिया ने कवर किया लेकिन तब तक ही जब तक उनका मुद्दा गरमाया रहा. प्रसिद्द हिंदी संगीतकार रब्बी शेरगिल ने अपने गीत ‘जिन्हें नाज है हिन्द पे वो कहां हैं’ में कुछ लाइनें सत्येन्द्र दूबे को समर्पित कीं. एक कॉलेज का नाम इनके नाम पर रखने के साथ इन्हें कई अवार्ड भी मिले लेकिन एक चीज जिसका सबको इंतजार है वो नहीं मिला तो न्याय.