लॉकडाउन के दौरान अपने घर लौट रहे प्रवासी मज़दूरों के दर्द को पूरे देश ने महसूस किया। इस दौरान, सड़क पर भूख-प्यास के कारण कई मज़दूरों की जानें भी चली गई। वह वास्तव में एक ऐसा मार्मिक दृश्य था, जिसे कोई चाहकर भी नहीं भूल सकता।
लेकिन, आज हम आपको ऐसे दोस्तों की कहानी बताने जा रहे हैं, जिन्होंने अपनी सोच और प्रयासों द्वारा एक ऐसी पहल की, जिसमें आशा की एक नई किरण दिखाई देती है।
दरअसल यह कहानी, मूल रूप से बिहार के छपरा के रहने वाले आकाश अरुण और मध्य प्रदेश के उनके चार अन्य साथियों की है, जिन्होंने लॉकडाउन के दौरान घर लौट रहे मज़दूरों तथा उनके परिवार का दर्द समझा और उनकी मदद के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया।
सफर की शुरुआत
अरुण पेशे से एक पत्रकार हैं और वह पिछले 15 वर्षों से अधिक समय से पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं। लॉकडाउन के दौरान वह मध्य प्रदेश के मधुसूदनगढ़ तहसील में फंस गए थे, जहाँ वह अपनी पत्नी को छोड़ने आये थे।
वह बताते हैं, “लॉकडाउन के दौरान हर तरफ भय का माहौल था। ट्रेन और बस बंद होने के कारण घर से निकलना मुश्किल था। इस दौरान हम सबने देखा कि मज़दूरों की कैसी हालत थी। इससे मुझे लोगों के लिए ज़मीनी स्तर पर कुछ करने की प्रेरणा मिली।”
वह आगे बताते हैं, “इतने अर्से से पत्रकारिता से जुड़े होने के कारण मुझे देश के कई हिस्सों में घूमने और वास्तविकता को करीब से समझने का मौका मिला। इसलिए मैं अपने इस अनुभव का इस्तेमाल कर, कुछ अलग करना चाहता था।”
उन्होंने इस विचार को अपने दोस्तों नवदीप सक्सेना, अभिषेक विश्वकर्मा, राहुल साहू, और अभिषेक भारद्वाज से साझा किया। वे सभी इसके लिए राज़ी हो गए। इसके बाद, सभी ने साथ में विचार-विमर्श किया कि ऐसा क्या किया जाए, जिससे अपनी अच्छी कमाई करने के साथ ही मज़दूरों के परिवारों को भी लाभ मिले।
अरुण बताते हैं, “विचार-विमर्श के दौरान नवदीप ने एक सुझाव रखा कि पास के गोविंदपुरा गाँव में 300 घर हैं, जहाँ अधिकांशतः भील जन-जाति के लोग रहते हैं। यहाँ पुरुष नौकरी के लिए शहर जाते हैं, लेकिन महिलाएं गाँव से बाहर नहीं निकल पाती हैं। फिर, हमने इस दिशा में कुछ कारगर करने का फैसला किया।”