डॉल का नाम सुनते ही, सबसे पहले दिमाग में बार्बी डॉल की छवि उभरकर आती है। लेकिन सुरेंद्रनगर की रहनेवाली रंजन बेन भट्ट की बनाई हैंडमेड गुड़िया ने, आज पूरी दुनिया में अपनी अलग जगह बना ली है। रंजनबेन और उनके बेटे हरिनभाई अपनी पहल कलाश्री फाउंडेशन, के तहत हर महीने 500 से अधिक ईको-फ्रेंडली गुड़ियां बनाकर बेच रहे हैं। इतना ही नहीं, कलाश्री फाउंडेशन ने 20 से अधिक महिलाओं को रोजगार भी दिया है। साल 1990 से शुरू हुए इस बिज़नेस की सफलता का अंदाजा, इसी से लगाया जा सकता है कि आज इन्हें भारत सहित 18 दूसरे देशों से भी ऑर्डर्स मिल रहे हैं।
द बेटर इंडिया से बात करते हुए हरिन भट्ट बताते हैं, “मेरी माँ को हमेशा से सिलाई, बुनाई और कला का शौक़ था। वह दूसरी महिलाओं को भी सिखाती थीं। आज इस उम्र में भी, वह हर दिन डॉल बनाने का काम कर रही हैं। जब हमने इसे शुरू किया था, तब सोचा भी नहीं था कि हम इसे इतना आगे ले जा पाएंगे।”
रंजनबेन, महिलाओं को सिलाई, डॉल मेकिंग, एम्ब्रॉयडरी आदि सिखाया करती थीं। उन्होंने इसका प्रोफेशनल कोर्स भी किया है। लेकिन बाद में उनके बेटे ने डॉल मेकिंग को बिज़नेस के तौर पर शुरू किया और इस तरह आजतक यह काम चलता आ रहा है।
खाली समय में सीखा सिलाई-बुनाई का काम
साल 1960 में भट्ट परिवार, सुरेंद्रनगर के वधावन में रहता था। वहां गुजरात की जानी-मानी समाज सेविका अरुणाबेन देसाई ने विकास विद्यालय नाम से एक संस्था शुरू की, ताकि महिलाएं आत्मनिर्भर बन सकें। इस संस्थान से ही रंजनबेन ने, एक के बाद एक तीन कोर्स किए, जिनमें सिलाई, डॉल मेकिंग और हैंड एम्ब्रॉयडरी शामिल हैं। चूँकि, उनके पति सिंचाई विभाग में इंजीनियर थे, इसलिए प्रोजेक्ट्स के लिए उनकी पोस्टिंग सौराष्ट्र के अलग-अलग स्थानों पर होती रहती थी।
हरिन बताते हैं, “माँ जहां भी जाती थीं, वहां आस-पास की महिलाओं को सिलाई का काम सिखाती रहती थीं। साल 1979 में, हम गांधीनगर शिफ्ट हो गए। वहां, माँ ने अपनी खुद की सिलाई क्लास शुरू कर दी, जिसमें उन्होंने 8000 से ज्यादा लड़कियों को ट्रेनिंग दी थी। वन मैन शो के रूप में किया गया यह काम, उनकी एक बड़ी उपलब्धि है।”
कैसे आया गुड़िया बनाने का ख्याल
Input: The better india