यह हमारी विडंबना है कि हम आजादी के मतवालों में सिर्फ उन्हें याद रखते हैं, जो या तो शहीद हो गया या आजादी के बात किसी कुरसी पर बैठ गया। यह वजह है कि इस देश में फांसी पर चढ़ने वाले भगत सिंह और अंगरेजों की गोली का शिकार होने वाले चंद्रशेखर आजाद की जयंतियां तो मनाई जाती है। मगर भगत सिंह के साथ एसेंबली में बम फोड़ने, इंकलाब-जिंदाबाद कहते हुए गिरफ्तारी देने वाले बटुकेश्वर दत्त की जंयती हमारी याददास्त से फिसल जाती है। क्योंकि किसी तकनीकी वजह से सैंडर्स हत्याकांड और लाहौर कॉंस्पिरेसी केस से उनका नाम हट गया और उन्हें फांसी के बदले कालापानी हो गयी। मगर क्या कालापानी भोगना जिंदगी के अमूल्य 15-16 वर्ष किसी न किसी बहाने जेल में गुजारना, वहां टीबी का शिकार हो जाना, क्या कम बड़ा आत्मोत्सर्ग है? और फिर आजाद भारत में 18 साल तक गुमनामी और अभावग्रस्त जीवन जीते रहना। क्योंकि बटुकेश्वर मानते थे कि आजादी की लड़ाई लड़ने का कोई मुआवजा नहीं होना चाहिए।
यह अजीब सी कहानी है, दुखद तो यह है कि वह पटना शहर भी उन्हें ठीक से याद नहीं करता जहां उन्होंने अपने आधी से अधिक जिंदगी गुजार दी। जहां उनकी इकलौती संतान रहती है। आजादी के बाद उसी पटना शहर में उन्होंने कभी ठेले पर बनियान बेची तो कभी साइकिल पर घूम-घूमकर बिस्कुट बेचा, कभी सिगरेट कंपनी में काम किया तो कभी बस चलाने का नाकाम व्यवसाय किया। ऐसा नहीं था कि लोगों को याद न हो कि भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और बटुकेश्वर दत्त की मशहूर चौकड़ी में से एक जिंदा है और पटना में इस हाल में रह रहा है। देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने कई दफा उनकी मदद करने की कोशिश की। एक बार तो सात महीने के अल्प अवधि के लिए उन्हें बिहार विधान परिषद का सदस्य भी बनाया गया। मगर स्थानीय प्रशासन की उपेक्षा और संवेदनहीन कार्यप्रणाली की वजह से राजेद्र बाबू की कोशिशें भी बटुकेश्वर के काम न आ सकी।
आखिरकार जीवन के अंतिम पड़ाव पर जब वे कैंसर के शिकार हुए तो उनके पास इलाके के पैसे नहीं थे। उस वक्त वही मां उनके लिए उठ खड़ी हुई, जिन्हें उनके बेटे भगत सिंह ने फांसी पर चढ़ते वक्त कहा था, कि भले ही मैं आज मरने जा रहा हूं, मगर मेरे बाद बटुकेश्वर में मेरी आत्मा रहेगी। वही तुम्हारा बेटा होगा। और उस मां को जब पता चला कि बटुकेश्वर बीमार है तो पंजाब वे वह भागी आयी। उन्हें लेकर एम्स गयी, वहां भरती कराया। देश भर में घूम-घूम कर उनके इलाज के लिए चंदा जमा किया, छह महीने तक अस्पताल में उनके बेड के नीचे चटाई बिछा कर सोती रही। जब बटुकेश्वर नहीं बचे तो उनकी इकलौती संतान भारती का धूम-धूम से ब्याह कराया। सारे फर्ज पूरे किये। यह सब बातें बिहार विधान परिषद से प्रकाशित पुस्तक विप्लवी बटुकेश्वर दत्त का हिस्सा हैं और पुस्तक ने लेखक भैरवलाल दास ने मुझे बताया है।
भैरवलाल दास कहते हैं, पंजाब में, जहां से बटुकेश्वर का कोई नाता नहीं था, मगर सिर्फ इस वजह से कि बटुकेश्वर जिंदा भगत सिंह थे, उन्हें भरपूर स्नेह दिया जाता है, उन्हें ‘दत्त भगत सिंह’ कह कर पुकारा जाता है। उनके इलाज में पंजाब सरकार ने भी काफी मदद की। जब उनका निधन हुआ तो फूलों से सजी गाड़ी में उनका शव पंजाब में उस जगह ले जाया गया, जहां उनके तीन साथी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की समाधि है। वहीं उनका अंतिम संस्कार हुआ और वहीं समाधि बनी। इस तरह उनकी आखिरी ख्वाहिश पूरे हुई कि मुझे मेरे दोस्तों के पास पहुंचा देना। मगर वह बिहार प्रांत जहां उन्होंने तकरीबन 27-28 साल यानी अपनी जिंदगी का आधे से अधिक वक्त गुजारा लोग उन्हें वह स्नेह नहीं मिला, जिसके वह हकदार थे। हाल में उनकी एक प्रतिमा जरूर स्थापित हुई है, और वहां आज के रोज रस्मी तौर पर माल्यार्पण वगैरह भी हो जाता है। मगर क्या बिहार के सबसे बड़े क्रांतिकारी का इतना ही धाय था। क्यों लोग पंजाब में जितना प्रेम भगत सिंह से करते हैं, बिहार में बटुकेश्वर से नहीं करते।
वे कहते हैं, दरअसल बटुकेश्वर का जन्म भले ही बंगाल में हुआ, मगर उनका अपना मकान पटना में ही रहा है। पिता कानपुर रेलवे में काम करते थे, तो उनकी पढ़ाई लिखाई कानपुर में हुई। वहां किशोरावस्था में ही ये हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से जुड़ गये। जिसमें आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव वगैरह सक्रिय थे। फिर सैंडर्स मर्डर में साथ रहे और असेंबली बम कांड में तो भगत और बटुकेश्वर ही दो किरदार थे। असेंबली बम कांड के बाद जब इंकलाब-जिंदाबाद कहते हुए भगत और बटुकेश्वर ने गिरफ्तारी दी तो इस मामले में चले मुकदमे में दोनों को उम्र कैद की सजा सुनायी गयी। मगर जब सैंडर्स मर्डर और लाहौर कांस्पिरेसी केस के लिए स्पेशल ट्रिब्युनल शुरू हुआ तो इस मामले में 18 में से तीन अभियुक्तों का नाम तकनीकी कारणों से हटा दिया गया। उनमें बटुकेश्वर दत्त भी थे। यही वजह है कि जहां उनके तीन साथियों भगत सिंह, शिवराम राजगुरु और सुखदेव थापर को फांसी की सजा दी गयी, उन्हें असेंबली बमकांड के दोषी के रूप में उम्र कैद भुगतना पड़ा। दोस्तों से अलग हो जाने का उन्हें ताउम्र मलाल रहा और यही वजह है कि मरने के बाद उन्होंने अपनी समाधि अपने दोस्तों के पास बनवाने की ख्वाहिश जाहिर की थी।
भैरवलाल दास कहते हैं, बटुकेश्वर अपने दोस्तों में सबसे शांत दिमाग के थे। काफी पढ़े-लिखे और तार्किक थे। इसलिए कई बार असेंबली बम कांड के मुकदमे में उन्होंने ही लीड लिया था। भगत सिंह भी उनको काफी पसंद करते थे। जुलाई, 1930 में जब भगत और बटुकेश्वर को जेल में अलग किया गया और बटुकेश्वर को दूसरे जेल भेजा जाने लगा तो भगत सिंह ने अपनी डायरी में बटुकेश्वर का आखिरी ऑटोग्राफ लिया। फिर बटुकेश्वर देश के कई जेलों से गुजरते हुए अंडमान के सेल्युलर जेल भेज दिये गये औऱ उनके तीन साथी 1931 में फांसी पर चढ़ा दिये गये।
पटना से उनका गहरा नाता इस वजह से था, क्योंकि उनके बड़े भाई विश्वेश्वर दत्त यहां सेंट्रेल बैंक ऑफ इंडिया में काम करते थे और यहीं उनका अपना मकान था, जक्कनपुर के इलाके में। डॉ। राजेंद्र प्रसाद की नजर हमेशा से अपने सूबे के इस क्रांतिकारी पर रहती थी। इसलिए 1936 में बिहार में जब कांग्रेस की प्रांतीय सरकार बनी तो राजेंद्र बाबू ने उनका तबादला अंडमान से पटना जेल करवा लिया और फिर उन्हें रिहाई दिलवा दी गयी। मगर बटुकेश्वर शांत बैठने वालों में नहीं थे। फिर भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हो गये और फिर उन्हें जेल हो गयी। वे मोतीहारी जेल में चार साल तक रहे। उनके जेल जाने का सिलसिला हमेशा जारी रहा। जेल से छूटे भी तो टीबी के मरीज बन गये।
भैरवलाल दास बताते हैं, यह अजीब बात है कि आजाद भारत में भी खुफिया पुलिस उनकी निगरानी करती थी, क्योंकि ऐसा माना जाता था कि क्रांतिकारियों के संगठन भारत-पाकिस्तान को फिर से एक करने की कोई खुफिया योजना बना रहे हैं और उसे लागू करने वाले हैं। बहरहाल आजादी के बाद बटुकेश्वर ने अंजली दत्त से शादी की। फिर गृहस्थी की गाड़ी चलाने की कोशिश करने लगे। वे किसी आम बंगाली परिवार की तरह ही पटना में रहते थे। किसी से यह नहीं कहते कि वे क्रांतिकारी हैं। आजीविका चलाने के लिए कई तरह के काम किये, मगर उनसे कोई रोजगार हो नहीं पाया।
राष्ट्रपति बनने के बाद डॉ राजेंद्र प्रसाद को जब उनकी स्थिति का पता चला तो उन्होंने पटना डीएम से कहा कि इनके लिए यथोचित रोजगार की व्यवस्था करायी जाये। डीएम ने तय किया कि वे पटना और आरा के बीच बस चलाने का परमिट बटुकेश्वर को दे देंगे। उस वक्त लोग ऐसी परमिट के लिए ललायित रहते थे। बटुकेश्वर को डीएम ने ऑफिस बुलवाया और कहा कि हम आपके लिए रोजगार का इंतजाम करने जा रहे हैं, लेकिन पहले आपको कोई ऐसा सुबूत देना होगा जिससे जाहिर होता हो कि आप स्वतंत्रता सेनानी हैं। यह सुनना था कि बटुकेश्वर भाव-विभोर हो गये। डबडबाई आंखों से बिना कुछ कहे डीएम के कक्ष से बाहर हो गये।
राजेंद्र बाबू ने इस मामले का फोलोअप कराया तो पता चला कि ऐसा हो गया है। फिर उन्होंने डीएम को फटकारा। कहा एक तो तुम ऐसे अधिकारी हो जो इतने बड़े क्रांतिकारी को नहीं जानते और दूसरी गलती कि उससे सर्टिफिकेट मांगते हो। बहरहाल डीएम ने फिर से बुला कर बटुकेश्वर को बस चलाने का परमिट दे दिया। मगर बटुकेश्वर के पास न तो पूंजी थी और न ही बस चलाने की योग्यता लिहाजा वह व्यवसाय भी असफल रहा। एक बार फिर से वह गरीबी के दलदल में धंस गये।
अक्तूबर 1963 में जब केबी सहाय बिहार के मुख्यमंत्री बने तो न जाने क्या सोच कर बटुकेश्वर दत्त को बिहार विधान परिषद का सदस्य मनोनीत कर दिया गया। वह भी इतने छोटे कार्यकाल के लिए जो मई 1964 को पूरा हो गया। फिर वे बीमार पड़ गये। पहले पटना में इलाज चला फिर एम्स दिल्ली में। वहां 20 जुलाई, 1965 को उनका निधन हो गया। पटना में जक्कनपुर में उनके पैतृक आवास की जगह पर अपार्टमेंट बना गया है, जिसका नाम बटुकेश्वर दत्त मेंशन रखा गया है। वहीं उनकी इकलौती संतान भारती बागची रहती हैं। उन्होंने मगध महिला कॉलेज में अर्थशास्त्र विभाग में व्याख्याता के रूप में कार्यकाल पूरा किया है। बटुकेश्वर का सबकुछ पटना में है। मगर वे पटना वालों के दिल में नहीं हैं। उन्हें स्नेह पंजाब में ही मिलता है। क्यों, यह सवाल पटना वालों से पूछना चाहिए।
लेखक : पुष्यमित्र, वरिष्ठ पत्रकार, पटना